Bhagwadgeeta chapter 3 Shlok with meaning in hindi and english, Shreemad Bhagwat geeta chapter 3 | श्रीमद्भगवद् गीता अध्याय 3 कर्म योग|
Chapter 3 of the Bhagavad Gita is titled “Karma Yoga.” In this chapter, Lord Krishna imparts valuable teachings to Arjuna about the importance of selfless action and the concept of duty.
The chapter begins with Arjuna expressing his confusion as to why Lord Krishna encourages him to engage in battle while praising the path of renunciation and wisdom. Arjuna seeks clarity as to which path is superior.
Read Chapter 2 of Bhagwadgeeta with Meaning
Lord Krishna explains that both paths, the path of wisdom and the path of selfless action (karma yoga), are important. However, for most individuals, the path of karma yoga is more practical and suitable for leading a balanced life. He emphasizes that one must perform one’s prescribed duty (dharma) without being attached to the results and without selfish desires.
Krishna also explains that all actions are performed by the interplay of the three gunas (qualities) – sattva (goodness), rajas (passion), and tamas (ignorance). One should go beyond the influence of these qualities and try to act according to one's dharma and with a pure heart.
Bhagwadgeeta chapter 3 verses with meaning |
Chapter 3 emphasizes the importance of dedicating all actions to God and dedicating the fruits of one's actions to the Supreme. By doing so, one can achieve liberation from the cycle of birth and death (samsara).
Lord Krishna encourages Arjuna to perform his role as a warrior with devotion and without hesitation, because this is his dharma. He emphasizes that abandoning one's duties is not the path to spiritual growth. Instead, one should perform one's duties with detachment and dedication.
By fulfilling one's responsibilities with dedication and dedicating the results to God, one can achieve spiritual growth and ultimate liberation.
भगवद गीता के अध्याय 3 का शीर्षक "कर्म योग" है। इस अध्याय में, भगवान कृष्ण अर्जुन को निःस्वार्थ कर्म के महत्व और कर्तव्य की अवधारणा के बारे में बहुमूल्य शिक्षाएँ प्रदान करते हैं।
अध्याय की शुरुआत अर्जुन द्वारा इस भ्रम को व्यक्त करने से होती है कि भगवान कृष्ण उसे त्याग और ज्ञान के मार्ग की प्रशंसा करते हुए युद्ध में शामिल होने के लिए क्यों प्रोत्साहित करते हैं। अर्जुन स्पष्टता चाहता है कि कौन सा मार्ग श्रेष्ठ है।
भगवान कृष्ण बताते हैं कि दोनों मार्ग, ज्ञान का मार्ग और निस्वार्थ कर्म का मार्ग (कर्म योग), महत्वपूर्ण हैं। हालाँकि, अधिकांश व्यक्तियों के लिए, संतुलित जीवन जीने के लिए कर्म योग का मार्ग अधिक व्यावहारिक और उपयुक्त है। वह इस बात पर जोर देते हैं कि व्यक्ति को परिणामों के प्रति आसक्त हुए बिना और स्वार्थी इच्छाओं के बिना अपने निर्धारित कर्तव्य (धर्म) का पालन करना चाहिए।
कृष्ण यह भी बताते हैं कि सभी कार्य तीन गुणों (गुणों) - सत्व (अच्छाई), रजस (जुनून), और तमस (अज्ञान) के परस्पर क्रिया द्वारा किए जाते हैं। व्यक्ति को इन गुणों के प्रभाव से परे जाकर, अपने धर्म के अनुसार और शुद्ध हृदय से कार्य करने का प्रयास करना चाहिए।
अध्याय 3 सभी कार्यों को ईश्वर को समर्पित करने और अपने कार्यों के फल को सर्वोच्च को समर्पित करने के महत्व पर जोर देता है। ऐसा करने से, व्यक्ति जन्म और मृत्यु के चक्र (संसार) से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं।
भगवान कृष्ण अर्जुन को एक योद्धा के रूप में अपनी भूमिका समर्पण और बिना किसी हिचकिचाहट के निभाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, क्योंकि यही उनका धर्म है। वह इस बात पर जोर देते हैं कि अपने कर्तव्यों को छोड़ना आध्यात्मिक विकास का मार्ग नहीं है। इसके बजाय, व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का पालन वैराग्य और समर्पण के साथ करना चाहिए।
समर्पण के साथ अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करके और परिणामों को ईश्वर को समर्पित करके, व्यक्ति आध्यात्मिक विकास और परम मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं।
अर्जुन उवाच
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥३-१॥
अर्थात :
अर्जुन बोले- हे जनार्दन! यदि आप कर्म की अपेक्षा ज्ञान को श्रेष्ठ मानते हैं तो फिर हे केशव! मुझे (इस युद्धरुपी) भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं?॥1॥
Meaning:
Arjun says: O Janardana! If you consider that knowledge is superior to action, why then you, O Kesava!, direct me to this fierce action?॥1॥
गीता तृतीय अध्याय श्लोक -२
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्॥३-२॥
अर्थात
आप मिले – जुले हुए वचनों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित सा कर रहे हैं इसलिए उस एक बात को निश्चित करके कहिए जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ॥2॥
Meaning
You are, as if, deluding my intellect with a mixed type of statements. Tell me with certainty that one way by which I may attain bliss.॥2॥
गीता तृतीय अध्याय श्लोक – ३
श्रीभगवानुवाच लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्॥३-३॥
अर्थात
श्रीभगवान बोले- हे निष्पाप! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गई है। उनमें से सांख्य योगियों की निष्ठा तो ज्ञान योग से और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से होती है॥3॥
Meaning
Lord Krishna says: O sinless! Earlier two types of dedication are told by Me in this world. Those who follow the way of Sankhya practice yoga of knowledge and other Yogis practice yoga of action.॥3॥
गीता तृतीय अध्याय श्लोक – ४
न कर्मणामनारम्भान् नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति॥३-४॥
अर्थात
मनुष्य न तो कर्मों का आरंभ किए बिना निष्कर्मता (जिस अवस्था को प्राप्त हुए पुरुष के कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात् फल उत्पन्न नहीं कर सकते, उस अवस्था का नाम ‘निष्कर्मता’ है।) को (या योगनिष्ठा) को प्राप्त होता है और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि (या सांख्यनिष्ठा) को ही प्राप्त होता है॥4॥
Meaning
Neither a man attain action-less-ness by not initiating actions nor does he attain it by mere renunciation of actions.॥4॥
गीता तृतीय अध्याय श्लोक – ५
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥३-५॥
अर्थात
निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति से उत्पन्न गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य होता है॥5॥
Meaning
Undoubtedly, no one ever remains without action, even for an instant; for every one, as if helpless, is forced by the attributes of Nature to action.॥5॥
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गीता तृतीय अध्याय श्लोक – ६
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥३-६॥
अर्थात
जो मनुष्य कर्मेन्द्रियों को हठपूर्वक रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह असत्य आचरण वाला कहा जाता है॥6॥
Meaning
He who, restrains his organs of action but keeps thinking about the sense-objects in his mind, is deluded and is said to be of false conduct.॥6॥
गीता तृतीय अध्याय श्लोक – ७
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते॥३-७॥
अर्थात
किन्तु हे अर्जुन! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वह विशिष्ट है॥7॥
Meaning
But O Arjun! Who controls his senses by an unattached mind, and follows the yoga of Action with organs of action, he is distinguished.॥7॥
गीता तृतीय अध्याय श्लोक – ८
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः॥३-८॥
अर्थात
तुम शास्त्र-विहित कर्मों को करो क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना ही श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तो तुम्हारा शरीर-निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा॥8॥
Meaning
You perform the actions as prescribed in the scriptures; for action is superior to inaction. And even the maintenance of this body would not be possible for you by inaction.॥8॥
गीता तृतीय अध्याय श्लोक – ९
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर॥३-९॥
अर्थात
यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मुनष्य समुदाय कर्मों से बँधता है। इसलिए हे अर्जुन! तुम आसक्ति-रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही कर्म करो॥9॥[यज्ञ – त्याग और ईश-आराधना से भावित होकर किये गए शास्त्र-सम्मत कर्म]
Meaning
Except in the case of action for Sacrifice’s sake, this world is action-bound. Action for the sake there of, do thou, O son of Kunti, perform, free from attachment.
गीता तृतीय अध्याय श्लोक – १०
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥३-१०॥
अर्थात
प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो॥10॥
Meaning
Having first created mankind together with sacrifices, the Prajapati said, By this shall ye propagate; let this be to you the cow of plenty.
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गीता तृतीय अध्याय श्लोक – ११
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ॥३-११॥
अर्थात
तुम लोग इस यज्ञ द्वारा देवताओं की आराधना करो और वे देवता तुम लोगों का पोषण करें। इस प्रकार एक-दूसरे को संतुष्ट करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे॥11॥
Meaning
With this do ye nourish the Gods and the Gods shall nourish you; thus nourishing one another, ye shall attain the supreme good.
गीता तृतीय अध्याय श्लोक – १२
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः॥३-१२॥
अर्थात
यज्ञ द्वारा पूजित हुए देवता तुम लोगों को, निश्चित रूप से इच्छित भोग देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओं द्वारा दिए हुए भोगों को जो पुरुष उनको अर्पण किये बिना स्वयं भोगता है, वह चोर ही है॥12॥
Meaning
Nourished by the sacrifice, the Gods shall indeed bestow on you the enjoyments ye desire. Whoso enjoys – without offering to Them – Their gifts, he is verily a thief.
गीता तृतीय अध्याय श्लोक – १३
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्॥३-१३॥
अर्थात
यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो लोग केवल अपने लिए अन्न पकाते हैं, वे तो पाप को ही खाते हैं ॥13॥
Meaning
The righteous, who eat the remnant of the sacrifice, are freed from all sins; but sin do the impious eat who cook for their own sakes.
गीता तृतीय अध्याय श्लोक – १४
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः॥३-१४॥
अर्थात
सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न वर्षा से उत्पन्न होता है, वर्षा यज्ञ से होती है और यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होने वाला है ॥14॥
Meaning
From food creatures come forth; the production of food is from rain; rain comes forth from sacrifice; sacrifice is born of action;
गीता तृतीय अध्याय श्लोक – १५
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥३-१५॥
अर्थात
कर्मसमुदाय को तुम वेद से और वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जानो। इसलिए सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है ॥15॥
Meaning
Know thou that action comes from Brahman and that Brahman comes from the Imperishable. Therefore, the all-pervading Brahman ever rests in sacrifice.
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गीता तृतीय अध्याय श्लोक – १६
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥३-१६॥
अर्थात
हे पार्थ! जो पुरुष इस प्रकार परम्परा से प्रचलित सृष्टिचक्र के अनुकूल कार्य नहीं करता, वह इन्द्रियों द्वारा भोगों में रमण करने वाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है॥16॥
Meaning
He who follows not here the wheel thus set in motion, who is of sinful life, indulging in senses, he lives in vain, O son of Pritha.
गीता तृतीय अध्याय श्लोक – १७
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥३-१७॥
अर्थात
परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट है, उसके लिए कोई भी कर्तव्य नहीं है॥17॥
Meaning
That man, verily, who rejoices only in the self, who is satisfied with the Self, who is content in the Self alone – for him there is nothing to do.
गीता तृतीय अध्याय श्लोक – १८
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः॥३-१८॥
अर्थात
उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही। समस्त प्राणियों से भी उसका बिलकुल भी स्वार्थ का संबंध नहीं रहता॥18॥
Meaning
For him, there is here no interest what ever in what is done or what is not done. Nor is there in all beings any one he should resort to for any object.
गीता तृतीय अध्याय श्लोक – १९
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः॥३-१९॥
अर्थात
इसलिए तुम निरन्तर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्य-कर्म को भलीभाँति करो क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है॥19॥
Meaning
Therefore, without attachment, constantly perform the action which should be done; for, performing action without attachment, man reaches the Supreme.
गीता तृतीय अध्याय श्लोक – २०
कर्मणैव हि संसिद्धिमा स्थिता जनकादयः।
लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि॥३-२०॥
अर्थात
जनक आदि भी आसक्ति रहित कर्म द्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे, इसलिए तथा लोकसंग्रह को देखते हुए भी तुम्हें कर्म करना ही उचित है॥20॥
Meaning
By action only, indeed, did Janaka and others try to attain perfection. Even with a view to the protection of the masses thou should perform (action).
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गीता तृतीय अध्याय श्लोक – २१
यद्यदाचरति श्रेष्ठस् तत्त देवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥३-२१॥
अर्थात
श्रेष्ठ पुरुष जैसा – जैसा आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य-समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है ॥21॥
Meaning
Whatsoever a great man does, that alone the other men do; whatever he sets up as the standard, that the world follows.
गीता तृतीय अध्याय श्लोक – २२
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥३-२२॥
अर्थात
हे अर्जुन! मेरा इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ॥22॥
Meaning
I have nothing whatsoever to achieve in the three worlds, O son of Pritha, nor is there anything unattained that should be attained; yet I engage in action.
गीता तृतीय अध्याय श्लोक – २३
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥३-२३॥
अर्थात
क्योंकि हे पार्थ! यदि मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाए क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं॥23॥
Meaning
For, should I not ever engage in action, unwearied, men would in all matters follow My path, O son of Pritha.
गीता तृतीय अध्याय श्लोक – २४
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
संकरस्य च कर्ता स्यामु पहन्यामिमाः प्रजाः॥३-२४॥
अर्थात
इसलिए यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जाएँ और मैं संकरता का करने वाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ॥24॥
Meaning
These worlds would be ruined if I should not perform action; I should be the cause of confusion of castes and should destroy these creatures.
गीता तृतीय अध्याय श्लोक – २५
सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्त श्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्॥३-२५॥
अर्थात
हे भारत! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्तिरहित विद्वान भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे॥25॥
Meaning
As ignorant men act attached to work, O Bharata, so should the wise man act, unattached from a wish to protect the masses.
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गीता तृतीय अध्याय श्लोक – २६
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्॥३-२६॥
अर्थात
ज्ञानी पुरुष शास्त्रविहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि को भ्रमित न करे, किन्तु स्वयं शास्त्रविहित समस्त कर्म भली-भाँति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवाए॥26॥
Meaning
Let no wise man cause unsettlement in the minds of the ignorant who are attached to action; he should make them do all actions, himself fulfilling them with devotion.
गीता तृतीय अध्याय श्लोक – २७
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥३-२७॥
अर्थात
सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं, तो भी अहंकार से मोहित अन्तःकरण वाला अज्ञानी ‘मैं कर्ता हूँ’, ऐसा मानता है॥27॥
Meaning
Actions are wrought in all cases by the energies of Nature. He whose mind is deluded by egoism thinks ‘I am the doer’.
गीता तृतीय अध्याय श्लोक – २८
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते॥३-२८॥
अर्थात
परन्तु हे महाबाहो! गुण विभाग और कर्म विभाग के तत्व को जानने वाला ज्ञान योगी सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता। ॥28॥
Meaning
But he who knows the truth, O mighty-armed, about the divisions of the energies and (their) functions, is not attached, thinking that the energies act upon the energies.
गीता तृतीय अध्याय श्लोक -२९
प्रकृतेर्गुणसंमूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।
तानकृत्स्नविदो मन्दान् कृत्स्नविन्न विचालयेत्॥३-२९॥
अर्थात
प्रकृति के गुणों से अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझने वाले मन्दबुद्धियों को ज्ञानी विचलित न करे॥29॥
Meaning
Those deluded by the energies of Nature are attached to the functions of the energies. He who knows the All should not unsettle the unwise who know not the All.
गीता तृतीय अध्याय श्लोक – ३०
मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः॥३-३०॥
अर्थात
मुझ अन्तर्यामी परमात्मा में लगे हुए चित्त द्वारा सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके आशारहित, ममतारहित और सन्तापरहित होकर (तुम) युद्ध करो॥30॥
Meaning
Renouncing all action in Me, with thy thought resting on the Self, being free from hope, free from selfishness, devoid of fever, do thou fight.
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गीता तृतीय अध्याय श्लोक – ३१
ये मे मतमिदं नित्यम नुतिष्ठन्ति मानवाः।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः॥३-३१॥
अर्थात
जो कोई मनुष्य दोषदृष्टि से रहित और श्रद्धायुक्त होकर मेरे इस मत का सदा अनुसरण करते हैं, वे भी सम्पूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं॥31॥
Meaning
Men who constantly practice this teaching of Mine with faith and without caviling, they too are liberated from actions.
गीता तृतीय अध्याय श्लोक – ३२
ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः॥३-३२॥
अर्थात
परन्तु जो मनुष्य मुझमें दोषारोपण करते हुए मेरे इस मत के अनुसार नहीं चलते हैं, उन मूर्खों को तुम सभी ज्ञानों में मोहित और नष्ट हुए ही समझो॥32॥
Meaning
But those who, carping at this, My teaching, practice it not – know them as deluded in all knowledge, as senseless men doomed to destruction.
गीता तृतीय अध्याय श्लोक – ३३
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति॥३-३३॥
अर्थात
सभी प्राणी और ज्ञानी भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करते हैं और प्रकृति को ही प्राप्त होते हैं फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा॥33॥
Meaning
Even the man of knowledge acts in conformity with his own nature; (all) beings follow (their) nature; what shall coercion avail?
गीता तृतीय अध्याय श्लोक -३४
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ॥३-३४॥
अर्थात
प्रत्येक इन्द्रिय और उसके विषय में राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं। मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिए क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान् शत्रु हैं॥34॥
Meaning
Love and hate lie towards the object of each sense; let none become subject to these two; for, they are his enemies.
गीता तृतीय अध्याय श्लोक – ३५
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥३-३५॥
अर्थात
अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है॥35॥
Meaning
Better one’s own duty, though devoid of merit, than the duty of another well discharged. Better is death in one’s own duty; the duty of another is productive of danger.
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गीता तृतीय अध्याय श्लोक – ३६
अर्जुन उवाच
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः॥३-३६॥
अर्थात
अर्जुन बोले- हे कृष्ण! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात् लगाए हुए की भाँति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है॥36॥॥
Meaning
Arjun says – But by what dragged on, O Varshneya, does a man, though reluctant, commit sin, as if constrained by force?
गीता तृतीय अध्याय श्लोक – ३७
श्रीभगवानुवाच काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्॥३-३७॥
अर्थात
श्री भगवान बोले- रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है। यह बहुत खाने वाला अर्थात भोगों से कभी न अघानेवाला और बड़ा पापी है। इसको ही तू इस विषय में वैरी जान॥37॥
Meaning
The Lord says – It is desire, it is wrath, born of the energy of Rajas, all-devouring, all sinful; that, know thou, is the foe here.
गीता तृतीय अध्याय श्लोक – ३८
धूमेनाव्रियते वह्नि र्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस् तथा तेनेदमावृतम्॥३-३८॥
अर्थात
जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और मैल से दर्पण ढँका जाता है तथा जिस प्रकार जेर से गर्भ ढँका रहता है, वैसे ही उस काम द्वारा यह ज्ञान ढँका रहता है॥38॥
Meaning
As fire is surrounded by smoke, as a mirror by rust, as the foetus is enclosed in the womb, so is this covered by it.
गीता तृतीय अध्याय श्लोक – ३९
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च॥३-३९॥
अर्थात
और हे अर्जुन! ज्ञानियों के नित्य वैरी इस अग्नि के समान कभी न पूर्ण होने वाले काम द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढँका हुआ है॥39॥
Meaning
Covered, O son of Kunti, is wisdom by this constant enemy of the wise, in the form of desire, which is greedy and insatiable.
गीता तृतीय अध्याय श्लोक – ४०
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्॥३-४०॥
अर्थात
इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि- ये सब इसके वासस्थान कहे जाते हैं। यह काम इन मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है। ॥40॥
Meaning
The senses, mind and reason are said to be its seat; veiling wisdom through these, it deludes the embodied.
Bhagwadgeeta chapter 3 Shlok with meaning in hindi and english, Shreemad Bhagwat geeta chapter 3 | श्रीमद्भगवद् गीता अध्याय 3 कर्म योग|
गीता तृतीय अध्याय श्लोक – ४१
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्॥३-४१॥
अर्थात
इसलिए हे अर्जुन! तुम पहले इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक मार डालो॥41॥
Meaning
Therefore, O lord of the Bharatas, restrain the senses first, do thou cast off this sinful thing which is destructive of knowledge and wisdom.
गीता तृतीय अध्याय श्लोक – ४२
इन्द्रियाणि पराण्याहु रिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः॥३-४२॥
अर्थात
इन्द्रियाँ स्थूल शरीर से श्रेष्ठ हैं, इन इन्द्रियों से श्रेष्ठ मन है, मन से भी श्रेष्ठ बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यन्त श्रेष्ठ है, वह आत्मा है॥42॥
Meaning
They say that the senses are superior; superior to the senses is mind; superior to mind is reason; one who is even superior to reason is He.
गीता तृतीय अध्याय श्लोक – ४३
एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ॥३-४३॥
अर्थात
इस प्रकार बुद्धि से श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि द्वारा मन को वश में करके हे महाबाहो! तुम इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डालो॥43॥
Meaning
Then knowing Him who is superior to reason, subduing the self by the self, slay thou, O mighty-armed, the enemy in the form of desire, hard to conquer.
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
अर्थात
ॐ तत् सत् ! इस प्रकार ब्रह्मविद्या का योग करवाने वाले शास्त्र, श्रीमद्भगवद्गीता रूपी उपनिषत् में श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद रूपी कर्मयोग नाम वाला तृतीय अध्याय सम्पूर्ण हुआ॥
Meaning
Om That is Truth! This completes the third chapter of Srimadbhagwad Gita, an Upanishat to unify one with Lord. Third chapter depicts the conversation between Sri Krishna and Arjun, and is named as “Yoga of Action”.
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